श्रीं कृष्ण ने गरुड़ जी से पुत्र की महिमा बताते हुए कहा था, अगर मनुष्य को मोक्ष की प्राप्ति नहीं होती है, तो उसका पुत्र उसका नरक से उद्धार कर सकता है। उसके पुत्र और पौत्र को उसे कंधा देना चाहिए और उसको विधि पूर्वक अग्निदाह देना चाहिए। इसके लिए सबसे पहले भूमि को गोबर से लिपना चाहिए। फिर उस स्थान पर तिल और कुश बिछाकर उस व्यक्तिंको कुशासन पर सुलाना चाहिए और उसके मुख में पंच रत्न डालने चाहिए। यह सब विधिपूर्वक करने से व्यक्ति अपने सारे पापो को जलाकर पापमुक्त हो जाता है
भूमि पर मंडल बनाने से इस मंडल में ब्रह्मा, विष्णु, रूद्र,अग्नि, सारे देवता विराजमान हो जाते है। इसलिए यह मंडल का निर्माण करने का बहुत महत्व माना गया है |
अगर भूमि पर मंडल का निर्माण नहीं किया हो और उस पर व्यक्ति प्राण त्याग कर देता है, तो उसे दूसरी योनि प्राप्त नहीं होती। उसकी आत्मा हवा के साथ भटकती रहती है
भगवान बोले, तिल और कुश की महत्ता बहुत है। तिल को बहुत पवित्र माना गया है, क्युकी तिल की उत्पत्ति मेरे पसीने से हुई है। तिल के प्रयोग से असुर, दानव और दैत्य को भगा सकते है
एक तिल का दान करने से स्वर्ण के बत्तीस सेर तिल के दान के बराबर माना जाता है। तिल का दान तर्पण, दान और होम में दिया जाता है, जो अक्षय होता है। कुश की उत्त्पति मेरे शरीर के रोमो से हुई है
कुश के मूल में ब्रह्मा, विष्णु और शिव है। यह तीनों देव कुश में प्रतिष्ठित है। कुश की आवश्यकता देवताओं की तृप्ति के लिए है, और तिल की आवश्यकता पितृओ की तृप्ति के लिए है
श्राद्ध की विधि के अनुसार ही मनुष्य ब्रह्मा, विष्णु और पितृजनो को संतृप्त कर सकता है। ब्राह्मण, मंत्र, कुश, अग्नि तथा तुलसी का बार-बार उपयोग करने से भी वह बासी नही होते
संसार में लोगो के मुक्ति प्रदान करने के साधनों में विष्णु एकादशी व्रत, गीता, तुलसी, ब्राह्मण और गौ का समावेश होता है
मृत्यु काल के समय मरण पामे हुए व्यक्ति के दोनो हाथो में कुश को रखा जाता है। जिसे व्यक्ति को विष्णुलोक की प्राप्ति होती है। पितृ को लवणरस अतिप्रिय होता है, और इसे स्वर्ग की प्राप्ति होती है। इसीलिए भगवान विष्णु से शरीर से उत्पन्न हुए लवणरस का भी दान करना चाहिए
किसी व्यक्ति के लिए स्वर्ग के द्वार खोलने के लिए लवण का दान करने का बहुत महत्व है। उसके पास तुलसी का वृक्ष और शालग्राम की शीला को भी लाकर रखना चाहिए
उसके बाद विधिपूर्वक सूत्रों का पाठ करने से मनुष्य की मृत्यु मुक्तिदायक होती है। तत्पश्चात मरे हुए व्यक्ति के शरीर के विभिन्न स्थानों में सोने की शालाकाओ को रचने की विधि की जाती है। जिसमे एक शलाका मुख, एक-एक शलाका नाक के दोनो छिद्रों, दो-दो शलाकाए नेत्र और कान और एक शलाका लिंग तथा एक शलाका उसके ब्रह्मांड में रखनी चाहिए
व्यक्ति के दोनो हाथ और कंठ के भाग में तुलसी को रखा जाता है। उसके बाद व्यक्ति के शव को दो वस्त्रों से अच्छादित करके कुमकुम और अक्षत से पूजन करे।
उसके बाद उसपे पुष्पों की माला चढ़ाई जाती है। तदनतर उसे बंधु बांधवों और पुत्र के साथ अन्य द्वार से ले जाए। पुत्र को अपने बंधावोंके साथ मिलकर मरे हुए पिता के शव को कंधे पर रख स्वयं ले जाना चाहिए।
शव को शमशान ले जाकर पहले से ना जली हुई भूमि पर पूर्वाभिमुख या उत्तरा भिमुख चिता का निर्माण कराए। चिता बनाने में चंदन, तुलसी तथा पलाश और लकड़ी का प्रयोग करना चाहिए।
शव को लेजाते समय राम नाम सत्य है क्यों बोला जाता है?
जब शव की इंद्रियों का समूह व्याकुल हो और शरीर उसका जड़ीभूत हो, तब शरीर से प्राण निकलकर यमराज के दूतो के साथ जाने लगते है। दुरात्मा प्राणी को यमदूत अपने पाशबंधो से जकड़कर मरते है। सुकृति मनुष्य को स्वर्ग के मार्ग में सुख पूर्वक ले जाते है। पापी लोगो को यमलोक के मार्ग में दुख जेलकर जाना पड़ता है।
यमराज अपने लोक में चतुर्भुज रूप धारण करके शंख, चक्र, और गदा से साधुपुरुष का आचरण करते हैं। और पापियों के साथ दुर्व्यवहार करते हे, और उन्हे दंड देते है।
यमराज प्रलय कालीन मेघ के समय गर्जना करने वाले है। वह बहुत बड़े भैंस पर सवार होते है। उनका स्वरूप अत्यंत भयंकर है, और स्वभाव से महाक्रोधी है।
यमराज का रूप भीमकाय है, और वह अपने हाथो में लोहे का दंड और पाश धारण करते है। पापी लोग उनके मुख तथा नेत्रों को देखने से ही डर जाते है।
प्राणों से मुक्त चेष्टा हीन शरीर को देखने से मन में घृणा उत्पन्न होती है। वह तुरंत ही अस्पृश्य तथा दुर्गंधयुक्त होकर सभी प्रकार से निंदित हो जाता है। शरीर अंत में राख में परिवर्तित हो जाता है।
शरीर क्षण भर में विध्वंश हो जाता है। ऐसे शरीर से उत्त्पन होने वाले चित्त का दान, आदरपूर्वक वाणी, कीर्ति, धर्म, आयु और परोपकार ही सारभूत है। यमदूत प्राणी को यमलोक के मार्ग में अत्यंत भय दिखाते हैं, और डाटकर कहते हे की तुझे यमराज के घर जाना है और जल्द ही तुम नरक में पहोचोगे। पापी उस समय ऐसी वाणी सुनते हुए और अपने बंधुओ का रूदन सुनते हुए, विलाप करता हुआ यमलोक पहुंचता है।
गरुड़ पुराण की परंपरा, भगवान विष्णु द्वारा अपने स्वरूप का वर्णन तथा गरुड़ जी को पुराण संहिता के प्रणय का वरदान
ऋषियों ने कहा – हे सूतजी! इस गरुड़ पुराण को भगवान व्यास ने आपको जिस प्रकार विधिवत सुनाया था उसी प्रकार आप हमे सुनाने की कृपा करे।
सूतजी बोले, एक बार ऋषिमुनियों के साथ में बद्रिकाश्रम गया था। मैने वहा पर भगवान व्यास के दर्शन किए ,जो ध्यान में मग्न थे। मैने उनको प्रणाम किया और पूछा, आप श्री हरी का ही ध्यान कर रहे है और आपको उनके सारे स्वरूप का ज्ञान है अतः मुझे भगवान के स्वरूप और इस सृष्टि की रचना के बारे में बताए। तब व्यास जी ने मुझे जिस प्रकार बोला वही में आपके समक्ष प्रस्तुत करता हु।
व्यास जी बोले थे, हे सूतजी! ब्रह्माजी ने मुझे, नारदजी तथा प्रजापति दक्ष को इस गरुड़ पुराण की कथा सुनाई थी, वही में आपको सुनाऊंगा। उस समय हम लोग ब्रह्म
तब ब्रह्मा जी बोले, यह गरुड़ पुराण मुझे और अन्य देवताओं को स्वयं भगवान विष्णु ने सुनाया था। पूर्व काल में मैं इंद्र और अन्य देवताओं के साथ कैलाशपर्वत पर गया था। वहा भगवान शिव ध्यान में मग्न थे।
मैने उनको नमस्कार करके कहा – हे सदाशिव! हम आपके अलावा अन्य कोई देवताओं को नहीं जानते अतः आप किसका ध्यान कर रहे है? कृपा करके आप हमे वह सारतत्व के बारे में बताए।
भगवान शिव ने कहा – मैं नरश्रेष्ठ भगवान विष्णु का ध्यान करता हूं, जो इस जगत में सर्वफलदायक, सर्वव्यापी, सर्वरूप, और परमात्मा है। हे पितामह! में उन्ही भगवान विष्णु की आराधना करता हु और इसीलिए मेने शरीर में भस्म और सिरपर जटा धारण की हुई है। सारतत्व के बारे में उन्ही से ज्ञान लेना उचित होगा।
भगवान विष्णु में ही संपूर्ण जगत का वास है। मैने अपने आप को उन्ही की शरण में किया हुआ है। मैं हरसमय उनकी ही स्तुति करता हु। वह सर्वभूतेश्वेर है। उनमें सत्वगुण, रजोगुण तथा तमोगुण एक सूत्र में विद्यमान रहते है।
भगवान श्री हरी के हजार नेत्र, हजार चरण, हजार जंघा है,और वह श्रेष्ठ मुख से परिपूर्ण है। वह सूक्ष्म से भी सूक्ष्म, स्थूल से भी स्थूल, गुरु से गुरुत्तम, तथा पूज्यो में पूज्यत्तम और श्रेष्ठो में श्रेष्ठ एवं सत्यो के परम सत्य और सत्कर्मा है। वह द्रिजातियो में ब्राह्मण है, और उनको हि पुराण पुरुष कहते है।
जल में जैसे छोटी मछलियां स्फुरित होती है, वैसे ही उनमें सारे लोक स्फूरित होते है। वह सत, असत से परे है। भगवान विष्णु के उदर में स्वर्ग, मर्त्य और पाताल यह तीनों लोक विद्यमान है।
उनकी भुजाओं को समस्त दिशाएं कहा गया, उनके उच्छवास को पवन, उनके केश को मेघमांलाओ का समूह, उनके सभी अंगों को नदिया, और उनकी कृक्षि चारो समुद्रों को कहा गया है।
चंद्रमा उनके मनसे, सूर्य उनके नेत्रों से तथा अग्नि उनके मुख से उत्पन्न हुए है। पृथ्वी की उत्तपति उनके चरणों से, दिशाएं उनके कानों से और स्वर्ग की उत्तपति उनके मस्तक से हुई है। हम सबको सारतत्व का ज्ञान लेने के लिए अनहिंके पास जाना चाहिए।
ब्रह्मा जी ने कहा – हे व्यास जी! पूर्वकाल में भगवान शिव के ऐसे कहने पर हम सब लोग परम सारतत्व को सुनने की इच्छा से श्वेतद्रिप में निवास करने वाले भगवान विष्णु के पास गए और वहा जाकर भगवान शिव ने उनको प्रणाम करके कहा – हे हरिहर! आप हमे यह सब बताने की कृपा करे की, ईश्वर कौन है? कौन पूजनीय है? किस प्रकार और कौन से व्रत से वह संतुष्ट होते है? वे किस प्रकार प्रसन्न होते है? किस प्रकार धर्म, नियम, पूजा करनी चाहिए? ईश्वर का स्वरूप कैसा है? इस संसार की रचना कैसे हुई है? इन सभी विषयों के बारे में तथा सारतत्व के विषय में बताने की कृपा करे। इसके अलावा परमेश्वर के महत्व और ध्यान योग का भी ज्ञान दे।
श्री हरी ने कहा – हे रूद्र! में ही इस संसार का रचिता हूं। देवो का देव में ही परम विष्णु हु। में ही पूजनीय हु। में ही व्रत, नियम और सदाचरण से संतुष्ट होता हु। मनुष्यों को परम गति में ही प्रदान करता हूं।
में ही भिन्न-भिन्न अवतारों में प्रकट होकर इस भूमंडल पर धर्म की रक्षा करता हु, तथा दुष्टों का नाश करता हु। में ही परम तत्व हु, जो पूजा और ध्यान से प्राप्त किया जा सकता है, सारे मंत्र और मंत्रो का अर्थ में ही हूं।
स्वर्ग की रचना भी मेने ही की है। में ही मनुष्य को भोग और मोक्ष देनेवाला हू। में ही पुराणों का ज्ञाता हू और योगी हू। संभाव तथा वक्त का विषय में ही हूं। यह सृष्टि में सारे जीव निर्जीव पदार्थों में मैं ही हूं।
संपूर्ण वेद का ज्ञाता में ही हूं। इतिहास स्वरूप, सर्वज्ञानमय, ब्रह्म, सर्वात्मा, सत्वलोकमय और सारे देवो का आत्मस्वरुप में ही हूं। मुजमे ही सारे ग्रह है जैसे सूर्य, चंद्र, मंगल आदि। में ही व्रत हु और में ही सनातन धर्म हु।
पूर्व काल में इस पृथ्वी पर पक्षी राज गरुड़ ने मेरी आराधना करके ही तपस्या की थी और फिर मेने ही प्रसन्न होकर उनको वर मांग ने को कहा था।तब गरुड़ ने कहा था, हे देवश्वर ! नागो ने मेरी माता को दासी बना दिया है। आप मुझे कृपा करके यह वर दे की में उन महाबली नागो को जीतकर मेरी माता को मुक्त करा सकू। आपका वाहन बन सकू और पुरानसंहिता का रचिता बन सकू।
श्री विष्णु ने कहा – हे गरुड़! आप को में वर देता हू की आप नागो से जीतकर अपनी माता को मुक्त करवा सकेंगे। सारे देवताओं को जीत लेंगे और अमृत ग्रहण करेंगे, तथा अत्यंत शक्तिमान होकर मेरे वाहन बन पाएंगे।
विष का भी विनाश कर पाएंगे और मेरे ही महत्व को बताने वाली पुराण संहिता की रचना करेंगे। आपने वैसा ही स्वरूप प्रकट होगा जैसा मेरा है। इस लोक में आपके रचना से की गई पुराण संहिता ’गरुड़’ के नाम से प्रसिद्ध होगी। सभी पुराणों में आपका रचा हुआ गरुड़ पुराण सर्वश्रेष्ठ होगा।
आपका भी सकिर्तन गरुड़ के नाम से होगा जिस प्रकार मेरा कीर्तन होता है। आप मुझपर दया करे और उस पुराण की रचना प्रारंभ करे। वरदान देने के बाद गरुड़ जी ने इसी पुराण को कश्यप ऋषि को सुनाया था।
ऋषि कश्यप ने इस गरुड़ विद्या का ज्ञान लेके गारुडीविद्या प्राप्त की थी और एक जले हुए वृक्ष को जीवित किया था। गरुड़ जी ने खुद भी इस विद्या से अनेक प्राणियों को जीवन दान दिया था। हे रूद्र! गरुड़ जी द्वारा रचित गरुड़ पुराण में मेरे ही स्वरूप के विषय में बताया गया है, जिसे आप सब लोग सुने |